1272 – وعن أَبي هريرة — رضي الله عنه — ، قَالَ :
خَطَبَنَا رسولُ اللهِ — صلى الله عليه وسلم — ، فَقَالَ : (( أيُّهَا النَّاسُ ، قَدْ فَرَضَ اللهُ عَلَيْكُم الحَجَّ فَحُجُّوا )) فَقَالَ رَجُلٌ : أكُلَّ عَامٍ يَا رَسولَ اللهِ ؟ فَسَكَتَ ، حَتَّى قَالَهَا ثَلاثاً . فَقَالَ رسولُ الله — صلى الله عليه وسلم — : (( لَوْ قُلْتُ نَعَمْ لَوَجَبَتْ ، وَلَمَا اسْتَطَعْتُمْ )) ثُمَّ قَالَ : (( ذَرُوني مَا تَرَكْتُكُمْ ؛ فَإنَّمَا هَلَكَ مَنْ كَانَ قَبْلَكُمْ بِكَثْرَةِ سُؤالِهِمْ ، وَاخْتِلاَفِهِمْ عَلَى أنْبِيَائِهِمْ ، فَإذَا أمَرْتُكُمْ بِشَيءٍ فَأتُوا مِنْهُ مَا اسْتَطَعْتُمْ ، وَإِذَا نَهَيْتُكُمْ عَن شَيْءٍ فَدَعُوهُ )) رواه مسلم .
1272 – Сообщается, что Абу Хурайра, да будет доволен им Аллах, сказал:
– (Однажды) посланник Аллаха, да благословит его Аллах и приветствует, обратился к нам с проповедью (, в которой среди прочего) сказал: «О люди, Аллах вменил вам в обязанность хаджж, так совершайте же его!» Один человек спросил: «Каждый год, о посланник Аллаха?», – однако он хранил молчание, пока тот не (повторил свой вопрос) трижды, и тогда посланник Аллаха, да благословит его Аллах и приветствует, сказал: «Если я скажу: “Да”, – это непременно станет (для вас) обязательным, но вы, ведь не сможете (делать этого)!»[1] А потом он сказал: «Избавьте меня (от расспросов о том, относительно) чего я с вами (не говорил), ибо, поистине, жившие до вас погибли из-за того, что задавали множество вопросов и не соглашались со своими пророками![2] Когда я велю вам что-нибудь, (просто) делайте из этого то, что вам по силам, а когда запрещаю вам что-нибудь, отказывайтесь от этого». Этот хадис передал Муслим (1337).
[1] Таким образом, лишние вопросы могли привести к тому, что Аллах возложил бы на людей дополнительные религиозные обязанности, что навлекло бы на них наказание в случае их неисполнения.
[2] Выражая своё неудовольствие, пророк, да благословит его Аллах и приветствует, хотел подчеркнуть, что он передаёт людям всё то, что вменяет им в обязанность Аллах, ничего не утаивая и ни о чём не забывая, а поэтому нет никакой необходимости задавать ему какие бы то ни было вопросы. Известно, что пророк, да благословит его Аллах и приветствует, запрещал своим сподвижникам, которые жили вместе с ним в Медине, расспрашивать его, но разрешал делать это людям, приезжавшим к нему на время для того, чтобы принять ислам и ознакомиться с важнейшими установлениями религии.
شرح الحديث
التخريج : أخرجه البخاري (7288) واللفظ له، ومسلم (1337)
لهذا الحديثِ سببٌ ذكَرَه أبو هريرةَ رضي الله عنه في روايةٍ أُخرى؛ حيث قال: خَطَبَنا رسولُ الله صلَّى الله عليه وسلَّم فقال: (أيُّها النَّاسُ، إنَّ الله فرَض عليكم الحَجَّ فحُجُّوا)، فقال رجلٌ: أكلَّ عامٍ يا رسول الله؟ فسكَتَ حتى قالها ثلاثًا، فقال رسولُ الله صلَّى الله عليه وسلَّم: (لو قلتُ: نعم، لَوَجَبَتْ، ولَمَا استطعتُم)، ثمَّ قال: (ذَرُونِي ما ترَكتُكم)، وفي هذه الرِّوايةِ قال: (دَعُوني ما ترَكتُكم)، والمرادُ: لا تُكثِروا الاستِفصالَ في المواضِعِ التي تُفِيدُ وجهًا ظاهرًا، وإنْ صلَحتْ لغيرِه؛ كما في قوله: (فحُجُّوا)، فإنَّه وإنْ أمكَنَ أن يُرادَ به التَّكرارُ، يَنبغي أن يُكتفَى منه بما يَصدُقُ عليه اللَّفظُ، وهو المَرَّةُ الواحدة، فإنَّها مفهومةٌ من اللَّفظِ قطعًا، وما زاد مشكوكٌ فيه، فيُعرَضُ عنه، ولا يُكثَرُ السُّؤالُ؛ لئلا يقَعَ الجوابُ بما فيه التَّعَبُ والمشقَّةُ، (إنَّما أهلَكَ مَن كان قبلَكم سؤالُهم)، أي: فإنَّما هلَكَتِ الأُممُ السَّابقةُ بسببِ كثرةِ أسئلتِهم لغير حاجةٍ وضرورة، كقول اليهودِ لموسى عليه السَّلامُ: {ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَنَا مَا هِيَ} [البقرة: 68] لَمَّا أُمِرُوا بذبحِ بقرةٍ، ولو أنَّهم عمَدوا إلى أيِّ بقرةٍ فذبَحوها لَأجزَأتْهم، ولكنَّهم شَدَّدُوا على أنفُسِهم بكثرةِ السُّؤال عن حالِها، وصِفتِها، فشدَّدَ اللهُ تعالى عليهم، (واختلافُهم على أنبيائِهم)، أي: أنَّهم هلَكوا بسببِ كثرةِ سؤالهم، وكَثرةِ مُخالفتِهم، وعِصيانِهم لأنبيائهم، (فإذا نهيتُكم عن شيءٍ فاجتنِبوه)، أي: فإذا منَعتُكم عن شَيءٍ فلا تفعَلُوه، وابتعِدوا عنه كلِّه؛ إذ الامتثالُ لا يحصُلُ إلَّا بتركِ الجميع، (وإذا أمرتُكم بأمرٍ)، أي: وإذا طلبتُ منكم فِعلَ شيءٍ؛ (فأْتُوا منه ما استطعتُم)، أي: فافعَلوا منه ما قدَرتُم عليه على قدرِ طاقتِكم واستطاعتِكم؛ وجوبًا في الواجبِ، وندبًا في المندوب.
وفي هذا الحديثِ: النَّهيُ عن الاختلافِ وكثرةِ الأسئلةِ مِن غير ضَرورة؛ لأنَّه تُوُعِّدَ عليه بالهلاك، والوعيدُ على الشَّيءِ دليلٌ على كَونِه كبيرةً، والاختلافُ المذموم ما يُؤدِّي إلى كفرٍ أو بِدعة.
وفيه: الأمرُ بطاعةِ الرَّسولِ صلَّى الله عليه وسلَّم، والتَّمسُّكِ بسُنَّتِه، والعملِ بأقوالِه وأفعالِه وتقريراتِه، والوقوفِ عندَها أمرًا ونهيًا.
وفيه: دليلٌ على أنَّ السُّنَّةَ هي المصدرُ الثَّاني من مصادرِ التَّشريعِ الإِسلاميِّ.
وفيه: دليلٌ على أنْ لا حُكمَ قبلَ وُرُودِ الشَّرعِ، وأنَّ الأصل في الأشياء عدمُ الوجوب.
وفيه: قولُه صلَّى الله عليه وسلَّم: (فإذا أمرتُكم بشيء فأْتُوا منه ما استطعتُم) هذا مِن قواعدِ الإسلام المهمَّةِ، ومن جوامِعِ الكَلِمِ التي أُعْطِيها صلَّى الله عليه وسلَّم، ويَدخُلُ فيها ما لا يُحصَى من الأحكام، وهذا الحديثُ مُوافقٌ لقولِ الله تعالى: {فَاتَّقُوا اللَّهَ مَا اسْتَطَعْتُمْ} [التغابن: 16]( ).