1344 – وعن عبد الله بن عمرو بن العاص رضي الله عنهما ، قَالَ : قَالَ رسولُ الله — صلى الله عليه وسلم — :
(( مَا مِنْ غَازِيَةٍ ، أَوْ سَرِيّةٍ تَغْزُو ، فَتَغْنَمُ وَتَسْلَمُ ، إِلاَّ كَانُوا قَدْ تَعَجَّلُوا ثُلُثَيْ أُجُورهُمْ ، وَمَا مِنْ غَازِيَةٍ أَوْ سَرِيّةٍ تُخْفِقُ وَتُصَابُ إِلاَّ تَمَّ لَهُمْ أجُورهُمْ )) رواه مسلم .
1344 – Передают со слов ‘Абдуллаха бин ‘Амра бин аль-‘Аса, да будет доволен Аллах ими обоими, что посланник Аллаха, да благословит его Аллах и приветствует, сказал:
«(Бойцы) любой группы (или: … отряда), которые отправятся в военный поход, захватят военную добычу и спасутся[1], непременно получат заранее две трети (обещанной им) награды,[2] что же касается (бойцов) любой группы (или: … отряда), которые отправятся в военный поход, потерпят неудачу[3] и попадут в беду[4], то они непременно получат (обещанную им) награду сполна». Этот хадис передали Муслим (1906).
[1] Имеется в виду, что они вернутся назад целыми и невредимыми.
[2] Здесь речь идёт о награде в мире вечном, обещанная Аллахом тем, кто будет сражаться на Его пути. Таким образом, в подобном случае участники военного похода получат две трети этой награды в земной жизни, а одну треть – в мире ином.
[3] То есть: не захватят никакой военной добычи.
[4] Иначе говоря, погибнут или будут ранены.
شرح الحديث
الجِهادُ في سَبيلِ اللهِ دَرجاتٌ بعضُها أَفْضَلُ من بعضٍ. وفي هذا الحديثِ يُخبِرُ النبيُّ صلَّى الله عليه وسلَّم أنَّه ما مِن غَازيةٍ، أي: جماعةٍ تَغزو في سَبيلِ اللهِ، أي: لا يُخرِجُهم إلى الجِهادِ إلَّا إِعلاءُ كلمةِ اللهِ، فجِهادُهم هو في سَبيلِ اللهِ خالصٌ للهِ مِن غَيرِ رِياءٍ أو سُمعةٍ، وليس لطَلبِ عَرَضِ مِن الدُّنيا زَائلٍ. وقَولُه: فيُصيبونَ منَ الغَنيمةِ إلَّا تَعجَّلوا ثُلثَيْ أجْرِهم ويَبقى لهم الثُّلثُ، أي: نالوا مِن الدُّنيا ما هو حسابُ ما فاتَهم مِنها بقدْرِ ثُلثي الأجْرِ. وإنْ لَم يُصِيبوا غنيمةً تمَّ لهم أجْرُهم، أي: إنَّ المُجاهدَ الَّذي يَغنَمُ مِن الجِهادِ أَقَلُّ أجْرًا في الآخرةِ مِنَ المجاهدِ الَّذي لا يَغنَمُ حيث، وإنْ كان كِلاهما مأجورًا مُثابًا، وتوضيحُ ذلك أنَّ الغُزاةَ إذا سَلِموا أو غَنِموا يكونُ أجرُهم أقلَّ مِن أجرِ مَن لم يَسْلَم أو سَلِم ولم يَغْنَمْ، وأنَّ الغنيمةَ هي في مقابلةِ جُزءٍ مِن أجْرِ غَزوِهم؛ فإذا حصَلَتْ لهم فقَدْ تَعجَّلوا ثُلُثَيْ أجْرهم المترتِّب على الغزوِ، وتكونُ هذه الغنيمةُ مِن جُملة الأجْرِ بما فُتِحَ عليه مِن الدُّنيا وتَمتَّع بِه، وذهَب عنه شَظفُ عَيشِه، بخِلافِ مَن أخْفَق ولم يُصِبْ منها شيئًا، وبَقِي على شَظفِ عيشِه والصَّبرِ على حالتِه؛ فهذا يُوفَّى أجْرَه كُلَّه