659 – وعن أَبي هريرة — رضي الله عنه — ، عن النبيِّ — صلى الله عليه وسلم — ، قَالَ :
(( سَبْعَةٌ يُظِلُّهُمُ الله في ظِلِّهِ يَوْمَ لاَ ظِلَّ إِلاَّ ظِلُّهُ : إِمَامٌ عادِلٌ ، وَشَابٌ نَشَأ في عِبادة الله تَعَالَى ، وَرَجُلٌ قَلْبُهُ مُعَلَّقٌ في المَسَاجِدِ ، وَرَجُلانِ تَحَابَّا في اللهِ اجتَمَعَا عَلَيْهِ ، وَتَفَرَّقَا عَلَيْهِ ، وَرَجُلٌ دَعَتْهُ امْرَأةٌ ذاتُ مَنْصِبٍ وجَمالٍ ، فَقَالَ : إنّي أخافُ اللهَ ، وَرَجُلٌ تَصَدَّقَ بِصَدَقَةٍ فَأخْفَاهَا حَتَّى لاَ تَعْلَمَ شِمَالُهُ مَا تُنْفِقُ يَمِينُهُ ، وَرَجُلٌ ذَكَرَ الله خَالِياً فَفَاضَتْ عَيْنَاهُ )) متفقٌ عَلَيْهِ .
«Семерых укроет Аллах в тени Своей в тот День, когда не будет иной тени, кроме тени Его: справедливого правителя, юношу, росшего в поклонении Всемогущему и Великому Аллаху, человека, сердце которого подвешено в мечетях,[2] (тех двоих, которые) любят друг друга в Аллахе, встречаясь и расставаясь[3] (только) ради Него, мужчину, которого позвала (к себе пожелавшая его) знатная и красивая женщина и который сказал: “Поистине, я боюсь Аллаха!”, — того, кто подаёт милостыню (настолько) тайно, что его левая рука не ведает, сколько тратит правая, а (также) того, чьи глаза наполняются слезами, когда он в одиночестве поминает Аллаха Всевышнего». Этот хадис передали Малик 1709, Ахмад 2/439, аль-Бухари 660, 1443, Муслим 1031, ат-Тирмизи 2391, ан-Насаи 8/222, Ибн Хузайма 358 и Ибн Хиббан 4486. См. «Сахих аль-Джами’ ас-сагъир» 3603.
[1] См. хадис № 376 и примечания к нему.
[2] Имеется в виду такой человек, который любит молиться в мечетях.
[3] Под расставанием здесь подразумевается смерть.
شرح الحديث
التخريج : أخرجه البخاري (660) واللفظ له، ومسلم (1031)
يُبَيِّن النَّبيُّ صلَّى الله علَيه وسلَّم: سَبعةٌ يُظلُّهم اللهُ في ظِلِّه، أي: سَبعةُ أصنافٍ مِن هذهِ الأُمَّة يُظلُّهم اللهُ في ظِلِّه ويَقيهم حَرارةَ الشَّمسِ. يَومَ لا ظِلَّ إلَّا ظِلُّه، أي: يَتنعَّمون بِظِلِّه في ذلِك اليومِ الَّذي تَدنو فيه الشَّمسُ مِن رُؤوسِ العِبادِ، ويَشتَدُّ عليهم حرُّها، فلا يَجِد أحَدٌ ظِلًّا إلَّا مَن أظَلَّه اللهُ في ظِلِّه. أوَّلهم: الإمامُ العادِلُ، أي: حاكِم عادِل في رعيَّتِه يُحافِظ على حُقوقِهم، ويَرعى مَصالِحَهم، ويَحكُم فيهم بشريعةِ اللهِ. والثَّاني: شابٌّ نَشَأ في عِبادةِ ربِّه، أي: مُجتهِدًا في عِبادةِ رَبِّه، مُلتزِمًا بطاعتِه في أمرِه ونهيِه. والثَّالثُ: رجُل قَلبُه مُعَلَّق في المَساجدِ، أي: شَديد الحُبِّ والتَّعلُّقِ بالمساجدِ يَترَدَّد عليها ويُلازِم الجَماعةَ فيها. والرَّابعُ: رَجُلانِ تحابَّا في اللهِ، أي: أحبَّ كُلٌّ منهما الآخَرَ في ذاتِ اللهِ تعالى وفي سَبيلِ مَرضاتِه واجتَمَعَا على ذلِك وتَفرَّقَا عليه. والخامِسُ: رَجُل طَلَبَته امرأةٌ ذاتُ مَنصِب وجَمالٍ، أي: دعَته لنَفْسِها امرأةٌ حَسْناءُ ذاتُ حَسَبٍ ونَسَبٍ، ومالٍ وجاهٍ، ومَركزٍ مَرموقٍ، فقال: إنِّي أخافُ اللهَ، أي: فيَمنعُه خوفُ اللهِ عن اقترافِ ما يُغضِبه. والسَّادس: رَجُل تَصدَّق صدقةَ التَّطوُّعِ فأخْفَى صَدَقتَه حتَّى لا تَعلَم شِمالُه ما تُنفِق يَمينُه، أي: فبالَغَ في إخفاءِ صَدقتِه على النَّاسِ، وسَتَرَها عن كُلِّ شَيء حتَّى ولو كانَ شِمالُه رَجلًا ما عَلِمها. والسَّابع: ورَجُل ذَكَرَ اللهَ خاليًا، أي: تذكَّر عَظَمةَ اللهِ تعالى ولِقاءَه، ووقوفَه بَينَ يَدَيه، ومُحاسبتَه على أعمالِه حالَ كونِه مُنفرِدًا عن النَّاسِ ففاضَت عَيناه، أي: فَسالَت دُموعُه خَوفًا مِن اللهِ تعالى.