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قَالَ عُمَرُ — رضى الله عنه: مَنْ يَحْفَظُ حَدِيثًا عَنِ النَّبِىِّ — صلى الله عليه وسلم — فِى الْفِتْنَةِ ؟ قَالَ حُذَيْفَةُ: أَنَا سَمِعْتُهُ يَقُولُ: « فِتْنَةُ الرَّجُلِ فِى أَهْلِهِ وَمَالِهِ وَجَارِهِ تُكَفِّرُهَا الصَّلاَةُ وَالصِّيَامُ وَالصَّدَقَةُ » . قَالَ: لَيْسَ أَسْأَلُ عَنْ ذِهِ ، إِنَّمَا أَسْأَلُ عَنِ الَّتِى تَمُوجُ كَمَا يَمُوجُ الْبَحْرُ . قَالَ: وَإِنَّ دُونَ ذَلِكَ بَابًا مُغْلَقًا . قَالَ: فَيُفْتَحُ أَوْ يُكْسَرُ ؟ قَالَ: يُكْسَرُ . قَالَ: ذَاكَ أَجْدَرُ أَنْ لاَ يُغْلَقَ إِلَى يَوْمِ الْقِيَامَةِ . فَقُلْنَا لِمَسْرُوقٍ: سَلْهُ أَكَانَ عُمَرُ يَعْلَمُ مَنِ الْبَابُ ؟ فَسَأَلَهُ فَقَالَ: نَعَمْ ، كَمَا يَعْلَمُ أَنَّ دُونَ غَدٍ اللَّيْلَةَ .
أطرافه 525 ، 1435 ، 3586 ، 7096- تحفة 3337 — 32/3
(Один из передатчиков этого хадиса сказал): «Мы сказали Масрукъу: “Спроси его, а ‘Умар знал кто являлся (этой) дверью?” И он спросил его и (Хузайфа) сказал: “Да, (он знал об этом также хорошо), как знал, что за днём наступает ночь”». См. также хадисы № 525, 1435, 3586 и 7096. Этот хадис передал аль-Бухари (1895).
Также этот хадис передали имам Ахмад (5/401), Муслим (144), ат-Тирмизи (2258), Ибн Маджах (3955), Ибн Хиббан (5966).
[1] В данном случае имеется в виду смута и раскол среди мусульман.
[2] «Фитна» — искушение; смута; бедствие; заблуждение. Здесь имеется в виду такое испытание, которое человек оказывается не в состоянии выдержать должным образом, в результате чего совершает нечто неподобающее или греховное. Подобное испытание может быть связано и с благоприятными, и с неблагоприятными обстоятельствами в жизни человека. Так, например, в Коране сказано: « … и Мы подвергнем вас искушению для испытания … » (аль-Анбияъ, 21:35). Эти слова Посланника Аллаха касались грядущей смуты и раскола среди мусульман.
[3] То есть, при твоей жизни не будет никаких искушений. См. «Тухфатуль-Бари» аль-Ансари (4/340).
[4] ‘Умар, да будет доволен им Аллах, был убит в 644 г., а несколько лет спустя после убийства третьего праведного халифа ‘Усмана, да будет доволен им Аллах, среди мусульман начался раскол.
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شرح الحديث
يَحكي حُذَيفةُ رضي الله عنه أنَّ عُمرَ رضي الله عنه في عهدِ خِلافتِه سأَل أصحابَ رسولِ الله صلَّى الله عليه وسلَّم في مجلسِه آنذاك: أيُّكم يحفَظُ قولَ رسول الله صلَّى الله عليه وسلَّم في الفتنةِ؟ فظَنَّ حُذيفةُ رضي الله عنه أنَّ عمرَ رضي الله عنه يسألُ عن الفتنةِ الخاصَّة، فأجابه حُذَيفة رضي الله عنه أنَّه يعرِفُ كلامَه صلَّى الله عليه وسلَّم في الفِتنةِ حرفيًّا مثلَ ما قاله تمامًا، فهي: فتنةُ الرَّجلِ في أهلِه وماله وولَده، وتُكفِّرُها الصَّلاُة والصَّومُ والصَّدقةُ والأمرُ بالمعروف والنَّهيُ عن المنكَر، أي: إنَّ هذه الفِتنَ الخاصَّةَ الَّتي تُصيبُ المسلمَ بسبب حبِّه لنفسِه وولَده ومالِه، تكفِّرُها الطَّاعاتُ والحسنات، ولكنَّ عمرَ رضي الله عنه ما كان يريدُ هذه الفتنَ الخاصَّة، بل الفتنةَ الَّتي تمُوجُ كما يموجُ البحرُ، أي: الفتنةَ العامَّةَ الَّتي تُصيبُ المسلمين عامَّةً، فطَمْأنَه حُذيفةُ رضي الله عنه بأنَّه لو كان سؤالُه عن الفتنةِ العامَّةِ الَّتي تصيبُ المسلِمين جميعًا بالشُّرورِ والبلايا، وتُوقِعُهم في الحروبِ وسَفْكِ الدِّماءِ فيما بينهم، فإنَّ المسلِمينَ اليومَ في مأمنٍ منها، وإنَّ بينه وبين هذه الفتنةِ بابًا مُغلَقًا قويًّا، ولكنَّ هذا البابَ سيُكسَرُ ويزولُ بالعنفِ والشِّدةِ والدَّمِ، وهنا علِم عمرُ رضي الله عنه أنَّ هذا البابَ سيبقى مفتوحًا للدِّماء، فلا تنتهي الحروبُ بين المسلِمينَ، وكان هذا البابُ الَّذي يقصِدُه حُذيفةُ رضي الله عنه هو عُمَرَ رضي الله عنه، فالحائلُ بين الإسلامِ وبين الفتنةِ وجودُه رضي الله عنه.
في الحديثِ: أنَّ الطَّاعاتِ كفَّارةٌ للخطيئاتِ.
وفيه: أنَّ الفتنةَ نوعانِ، خاصَّةٌ وعامَّةٌ.
وفيه: أنَّ وجودَ عمرَ رضي الله عنه كان بابًا مُغلَقًا في وجهِ الفِتَن.
وفيه: أنَّه قد يكونُ عند الصَّغيرِ مِن العِلمِ ما ليس عند المُعلِّم المُبرِّز.
وفيه: أنَّ العالِمَ قد يرمُزُ رمزًا ليفهَمَ المرموزُ له دون غيره؛ لأنَّه ليس كلُّ العلمِ تجبُ إباحتُه إلى مَن ليس متفهِّمًا له، ولا عالِمًا بمعناه .