129 – باب فِى تَخْفِيفِ الصَّلاَةِ.
129 – Глава: Об облегчении молитвы
790 – حَدَّثَنَا أَحْمَدُ بْنُ حَنْبَلٍ: حَدَّثَنَا سُفْيَانُ عَنْ عَمْرٍو سَمِعَهُ مِنْ جَابِرٍ قَالَ:
كَانَ مُعَاذٌ يُصَلِّى مَعَ النَّبِىِّ -صلى الله عليه وسلم- ثُمَّ يَرْجِعُ فَيَؤُمُّنَا — قَالَ مَرَّةً: ثُمَّ يَرْجِعُ فَيُصَلِّى بِقَوْمِهِ — فَأَخَّرَ النَّبِىُّ -صلى الله عليه وسلم- لَيْلَةً الصَّلاَةَ — وَقَالَ مَرَّةً: الْعِشَاءَ — فَصَلَّى مُعَاذٌ مَعَ النَّبِىِّ -صلى الله عليه وسلم- ثُمَّ جَاءَ يَؤُمُّ قَوْمَهُ فَقَرَأَ الْبَقَرَةَ فَاعْتَزَلَ رَجُلٌ مِنَ الْقَوْمِ فَصَلَّى فَقِيلَ: نَافَقْتَ يَا فُلاَنُ. فَقَالَ: مَا نَافَقْتُ. فَأَتَى رَسُولَ اللَّهِ -صلى الله عليه وسلم- فَقَالَ: إِنَّ مُعَاذًا يُصَلِّى مَعَكَ ثُمَّ يَرْجِعُ فَيَؤُمُّنَا يَا رَسُولَ اللَّهِ وَإِنَّمَا نَحْنُ أَصْحَابُ نَوَاضِحَ وَنَعْمَلُ بِأَيْدِينَا وَإِنَّهُ جَاءَ يَؤُمُّنَا فَقَرَأَ بِسُورَةِ الْبَقَرَةِ. فَقَالَ: « يَا مُعَاذُ أَفَتَّانٌ أَنْتَ أَفَتَّانٌ أَنْتَ اقْرَأْ بِكَذَا اقْرَأْ بِكَذَا ».
قَالَ أَبُو الزُّبَيْرِ: بِ (سَبِّحِ اسْمَ رَبِّكَ الأَعْلَى) ( وَاللَّيْلِ إِذَا يَغْشَى) فَذَكَرْنَا لِعَمْرٍو فَقَالَ: أُرَاهُ قَدْ ذَكَرَهُ.
قال الشيخ الألباني : صحيح
790 – Передают со слов ‘Амра (ибн Динара), слышавшего от Джабира (ибн ‘Абдуллаха, да будет доволен им Аллах, который) сказал:
– Обычно Му’аз (ибн Джабаль, да будет доволен им Аллах,) молился вместе с Пророком, да благословит его Аллах и приветствует, а потом возвращался и проводил с нами молитву в качестве имама – один раз (Джабир) сказал: «… а затем возвращался и молился с людьми своего племени». А однажды ночью, когда Пророк, да благословит его Аллах и приветствует, отложил молитву на более позднее время – один раз (Джабир) сказал: «… вечернюю молитву/‘ишаъ/», Му’аз помолился вместе с Пророком, да благословит его Аллах и приветствует, а затем пришёл, возглавил своих соплеменников и стал читать (суру) «аль—Бакъара»[1]. Тогда один человек из (числа стоящих позади него) людей покинул (ряды молящихся) и помолился (отдельно от них), и (ему) сказали: «О такой-то, ты стал лицемером!» Тот ответил: «Я не стал лицемером!» (Этот человек) пришёл к Посланнику Аллаха, да благословит его Аллах и приветствует, и сказал: «О Посланник Аллаха, поистине, Му’аз совершает с тобой молитву, после чего возвращается и проводит её с нами. У нас есть верблюды, на которых мы возим воду для полива, и работаем собственноручно, а он пришёл, и, возглавив нас в молитве, стал читать (суру) “аль-Бакъара”». И (тогда Пророк, да благословит его Аллах и приветствует), сказал: «О Му’аз! Ты что, искуситель?! Ты что, искуситель?![2] Читай такую-то и такую-то (суру)!»
Абу аз-Зубайр[3] сказал: «(Читай суры) “Славь имя Господа твоего Высочайшего…”[4] и “Клянусь ночью, когда она покрывает…”[5]». И мы рассказали об этом ‘Амру (ибн Динару) и он сказал: «Я думаю, что он упоминал об этом[6]».[7]
Шейх аль-Албани сказал: «Достоверный хадис/сахих/».[8]
Иснад этого хадиса достоверный в соответствии с условиями аль-Бухари и Муслима. См. «Сахих Аби Дауд» (3/375).
[1] Вторая сура из Корана, которая является самой длинной и состоит из 286 аятов. Прим. пер.
[2] То есть тот, кто отвращает людей от религии. Пророк, да благословит его Аллах и приветствует, имел в виду, что затягивание молитвы может стать причиной того, что люди покинут молитву и внушит им отвращение к участию в общих молитвах. См. «Фатхуль-Бари» (2/195).
[3] Это – Мухаммад ибн Муслим ибн Тадрус. См. примечание к хадису № 38.
[4] Сура № 87, «аль-А’ля».
[5] Сура № 92, «аль-Лейль».
[6] В версии имама Муслима сказано:
Суфьян сказал:
– Я сказал ‘Амру, что Абу аз-Зубайр передал нам со слов Джабира, что (Пророк, да благословит его Аллах и приветствует,) сказал (Му’азу): «Читай “Клянусь солнцем и его (ярким) сиянием”[1], “Клянусь утром”[2], “Клянусь ночью, когда она (всё) покрывает (мраком)”[3] и “Славь имя твоего Высочайшего Господа”[4]», и ‘Амр (подтвердил, что он слышал) нечто подобное. См. «Мухтасар Сахих Муслим» (стр. 182).
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[1] То есть всю 91-ю суру Корана.
[2] То есть всю 93-ю суру Корана.
[3] То есть всю 92-ю суру Корана.
[4] То есть всю 87-ю суру Корана.
[7] Также этот хадис передали Ахмад (3/308), аль-Бухари (701, 705), Муслим (465), Абу ‘Авана (2/156), ан-Насаи (2/102), Ибн Маджах (986), Ибн Хиббан (1840, 2400), аль-Байхакъи (3/85).
[8] См. «Сахих Аби Дауд» (756), «Сахих аль-Джами’ ас-сагъир» (7966), «Сыфату-с-саля» (106).
شرح الحديث
كانَ مُعاذُ بنُ جَبَلٍ رضي اللَّه عنه يُصَلِّي مع النَّبيِّ صلَّى اللَّه عليه وسلَّم، ثُمَّ يَأتي قَومَه، بَنِي سَلِمةَ فَيُصَلِّي بِهِم الصَّلاةَ الَّتي صَلَّاها مَعَ النَّبيِّ صلَّى اللَّه عليه وسلَّم، فَقَرَأ بِهِم البَقَرة، فتَجوَّزَ رجُلٌ فَصَلَّى مُنفرِدًا صَلاةً خَفيفةً، بأن يَكونَ قَطعَ الصَّلاةَ، أو قَطَعَ القُدوةَ، فَبَلَغَ ذلك مُعاذًا فَقالَ: إنَّهُ مُنافِقٌ. قالَ ذلك مُتَأوِّلًا ظانًّا أنَّ التَّارِكَ لِلجَماعةِ مُنافِقٌ، فَبلَغَ ذلك الرَّجُلَ، فَأتى النَّبيَّ صلَّى اللَّه عليه وسلَّم، فَقالَ: يا رَسولَ اللَّهِ، إنَّا قَوْمٌ نَعمَلُ بِأيدينا، وَنَسَقي بِنَواضِحِنا: جَمعُ ناضِحٍ، البَعيرُ الَّذي يُسقى عليه، وَإنَّ مُعاذًا صَلَّى بِنا البارِحةَ فَقَرَأ البَقَرة، فَتَجَوَّزْتُ في صَلاتي، فَزَعَمَ أنِّي مُنافِقٌ! فَقالَ صلَّى اللَّه عليه وسلَّم: يا مُعاذُ، أفتانٌ أنتَ؟! قالَ له ذلك ثَلاثًا، أي: مُنَفِّرٌ عَن الجَماعةِ، اقرَأْ إذا كُنتَ إمامًا «والشَّمسِ وَضُحاها» و»سَبِّحِ اسمَ رَبِّكَ الأعلى» ونَحوَهُما مِن قِصارِ المُفصَّلِ.
3 – ( باب تخفيف الصلاة )
( يصلي مع النبي ) زاد مسلم من رواية منصور عن عمرو عشاء الآخرة فكأن العشاء
(3/3)
هي التي كان يواظب فيها على الصلاة مرتين ( ثم يرجع فيؤمنا ) في رواية منصور المذكورة فيصلي بهم تلك الصلاة وللبخاري في الأدب فيصلي بهم الصلاة أي المذكورة
وفي هذا رد على من زعم أن المراد أن الصلاة التي كان يصليها مع النبي غير الصلاة التي يصليها بقومه ( قال ) جابر ( ثم يرجع فيصلي بقومه ) وفي بعض الروايات ثم يرجع إلى بني سلمة فيصليها بهم ولا منافاة بين هذه الروايات لأن قومه هم بنو سلمة وجابر بن عبد الله منهم ( فقرأ البقرة ) أي ابتدأ في قراءتها وبه صرح مسلم ولفظه فافتتح سورة البقرة
( فاعتزل رجل من القوم ) ولابن عيينة عند مسلم فانحرف رجل فسلم ثم صلى وحده وهو ظاهر في أنه قطع الصلاة لكن ذكر البيهقي أن محمد بن عباد شيخ مسلم تفرد عن بن عيينة بقوله ثم سلم وأن الحفاظ من أصحاب بن عيينة وكذا من أصحاب شيخه عمرو بن دينار وكذا من أصحاب جابر لم يذكروا السلام وكأنه فهم أن هذه اللفظة تدل على أن الرجل قطع الصلاة لأن السلام يتحلل به من الصلاة وسائر الروايات تدل على أنه قطع القدوة فقط ولم يخرج من الصلاة بل استمر فيها منفردا
قال الرافعي في شرح المسند في الكلام على رواية الشافعي عن بن عيينة في هذا الحديث فتنحى رجل من خلفه فصلى وحده وهذا يحتمل من جهة اللفظ أنه قطع الصلاة وتنحى عن موضع صلاته واستأنفها لنفسه لكنه غير محمول عليه لأن الفرض لا يقطع بعد الشروع فيه
انتهى
ولهذا استدل به الشافعية على أن للمأموم أن يقطع القدوة ويتم صلاته منفردا
ونازع النووي فيه فقال لا دلالة فيه لأنه ليس فيه أنه فارقه وبنى على صلاته بل في الرواية التي فيها أنه سلم دليل على أنه قطع الصلاة من أصلها ثم استأنفها فيدل على جواز قطع الصلاة وإبطالها لعذر
قاله الحافظ في الفتح ( فقيل نافقت يا فلان ) همزة الاستفهام محذوفة
وفي رواية الصحيحين فقالوا له أنافقت يا فلان أي أفعلت ما فعله المنافق من الميل والانحراف عن الجماعة والتخفيف في الصلاة
قالوه تشديدا له
قاله الطيبي
( أصحاب نواضح ) جمع ناضحة أنثى ناضح وهي الإبل التي يستقى عليها للشجر والزراعة ( ونعمل بأيدينا ) أراد أنا أصحاب عمل وتعب فلا نستطيع تطويل الصلاة ( أفتان أنت
(3/4)
أفتان أنت ) أي أمنفر وموقع للناس في الفتنة
قال الطيبي استفهام على سبيل التوبيخ وتنبيه على كراهة صنعه لأدائه إلى مفارقة الرجل الجماعة فافتتن به
في شرح السنة الفتنة صرف الناس عن الدين وحملهم على الضلالة قال تعالى ما أنتم عليه بفاتنين أي بمضلين انتهى وقال الحافظ ومعنى الفتنة ها هنا أن التطويل يكون سببا لخروجهم من الصلاة وللتكره للصلاة في الجماعة
وروى البيهقي في الشعب بإسناد صحيح أن عمر قال: لا تبغضوا إلى الله عباده يكون أحدكم إماما فيطول على القوم الصلاة حتى يبغض إليهم ما هم فيه وقال الداودي يحتمل أن يريد بقوله فتان أي معذب لأنه عذبهم بالتطويل ومنه قوله تعالى ( إن الذين فتنوا المؤمنين ) قيل معناه عذبوهم انتهى ( قال أبو الزبير سبح اسم ربك الأعلى والليل إذا يغشى فذكرنا لعمرو ) أي بن دينار ( أراه ) بضم الهمزة معناه أظنه
وفي رواية مسلم: قال سفيان: فقلت لعمرو: إن أبا الزبير حدثنا عن جابر أنه قال: اقرأ والشمس وضحاها والليل إذا يغشى وسبح اسم ربك الأعلى
فقال عمرو: ونحو هذا .
وفي رواية الليث عن أبي الزبير عند مسلم مع الثلاثة ( اقرأ باسم ربك ) زاد بن جريج عن أبي الزبير والضحى أخرجه عبد الرزاق
وفي رواية الحميدي عن بن عيينة مع الثلاثة الأول ( والسماء ذات البروج والسماء والطارق ) قاله الحافظ
واستدل بهذا الحديث على صحة اقتداء المفترض بالمتنفل بناء على أن معاذا كان ينوي بالأولى الفرض وبالثانية النفل ويدل عليه ما رواه عبد الرزاق والشافعي والطحاوي والدارقطني وغيرهم من طريق بن جريج عن عمرو بن دينار عن جابر في حديث الباب زاد هي له تطوع ولهم فريضة وهو حديث صحيح
وقد صرح بن جريج في رواية عبد الرزاق بسماعه فيه فانتفت تهمة تدليسه
فقول بن الجوزي إنه لا يصح مردود وتعليل الطحاوي له بأن بن عيينة ساقه عن عمر وأتم من سياق بن جريج ولم يذكر هذه الزيادة ليس بقادح في صحته لأن بن جريج أسن وأجل من بن عيينة وأقدم أخذا عن عمرو منه ولو لم يكن كذلك فهي زيادة من ثقة حافظ ليست منافية لرواية من هو أحفظ منه ولا أكثر عددا فلا معنى للتوقف في الحكم بصحتها
وأما رد الطحاوي لها باحتمال أن تكون مدرجة فجوابه أن الأصل عدم الإدراج حتى يثبت التفصيل فمهما كان مضموما إلى الحديث فهو منه ولاسيما إذا روي من وجهين والأمر هنا كذلك فإن الشافعي أخرجها من وجه آخر عن جابر متابعا لعمرو بن دينار عنه وقول الطحاوي هو ظن من جابر مردود لأن جابرا كان ممن يصلي مع معاذ فهو محمول على أنه سمع ذلك منه ولا يظن بجابر أنه يخبر عن شخص بأمر غير مشاهد إلا بأن يكون ذلك الشخص
(3/5)
أطلعه عليه
وأما احتجاج أصحابنا لذلك بقوله إذا أقيمت الصلاة فلا صلاة إلا المكتوبة فليس بجيد لأن حاصله النهي عن التلبس بصلاة غير التي أقيمت من غير تعرض لنية فرض أو نفل ولو تعينت نية الفريضة لامتنع على معاذ أن يصلي الثانية بقومه لأنها ليست حينئذ فرضا له
وكذلك قول بعض أصحابنا لا يظن بمعاذ أن يترك فضيلة الفرض خلف أفضل الأئمة في المسجد الذي هو من أفضل المساجد فإنه وإن كان فيه نوع ترجيح لكن للمخالف أن يقول إذا كان ذلك بأمر النبي لم يمتنع أن يحصل له الفضل بالاتباع
وكذلك قول الخطابي إن العشاء في قوله كان يصلي مع النبي العشاء حقيقة في المفروضة فلا يقال كان ينوي بها التطوع لأن لمخالفه أن يقول هذا لا ينافي أن ينوي بها التنفل
وأما قول بن حزم إن المخالفين لا يجيزون لمن عليه فرض إذا أقيم أن يصليه متطوعا فكيف ينسبون إلى معاذ ما لا يجوز عندهم فهذا إن كان كما قال نقص قوى وأسلم الأجوبة التمسك بالزيادة المتقدمة كذا في فتح الباري
قال المنذري وأخرجه البخاري ومسلم والنسائي بنحوه .