1462 – وعن البراءِ بنِ عازبٍ رضي الله عنهما ، قَالَ : قَالَ رسولُ الله — صلى الله عليه وسلم — :
(( إِذَا أَتَيتَ مَضْجعَكَ فَتَوَضَّأْ وَضُوءكَ لِلصَّلاَةِ ، ثُمَّ اضْطَجِعْ عَلَى شِقِّكَ الأيْمَن ، وَقُلْ : اللَّهُمَّ أَسْلَمْتُ نَفْسِي إِلَيْكَ، وَوَجَّهْتُ وَجْهِي إِلَيْكَ، وَفَوضْتُ أَمْرِي إليكَ ، وأَلْجَأتُ ظَهرِي إلَيْكَ ، رَغْبَةً وَرهْبَةً إليكَ ، لا مَلْجَأَ وَلاَ مَنْجَا مِنْكَ إِلاَّ إليكَ ، آمَنْتُ بِكِتابِكَ الَّذِي أنْزَلْتَ، وَبِنَبِيِّكَ الَّذِي أرْسَلْتَ، فإنْ مِتَّ مِتَّ عَلَى الفِطْرَةِ ، وَاجْعَلْهُنَّ آخِرَ مَا تَقُولُ )) متفق عَلَيْهِ .
1462 – Передают со слов аль-Бара бин ‘Азиба, да будет доволен Аллах ими обоими, что (однажды) пророк, да благословит его Аллах и приветствует, сказал (ему):
«Когда (захочешь) лечь в постель, соверши такое же омовение, какое совершаешь ты перед молитвой,[1] а потом ляг на правый бок и скажи: “О Аллах, я предался Тебе, и вручил Тебе дело своё и на Тебя положился по желанию своему и из страха перед Тобой. Нет убежища и нет спасения от Тебя, кроме (обращения) к Тебе! Я уверовал в Твоё Писание, которое Ты ниспослал, и в Твоего пророка, которого Ты послал”. /Аллахумма, инни аслямту нафси иляй-кя, ва фаввадту амри иляй-кя ва альджа`ту захри иляй-кя рагбатан ва рахбатан иляй-кя. Ля мальджа`а ва ля манджа мин-кя илля иляй-кя! Аллахумма, аманту би-китаби-кя аллязи анзальта ва би-набиййи-кя аллязи арсальта/. И если (после этого) ты умрёшь (этой ночью), то умрёшь в присущем тебе от рождения состоянии[2], а (поэтому пусть эти слова будут) последним, что скажешь ты (в этот день)». Этот хадис передали аль-Бухари и Муслим.[3]
[1] Иначе говоря, частичное омовение (вуду).
[2] Под этим состоянием (фитра) подразумевается ислам как присущая каждому человеку от рождения вера в Единого Бога.
[3] См. хадис № 80 и примечания к нему.
شرح الحديث
التخريج : أخرجه البخاري (247) واللفظ له، ومسلم (2710)
يُرغِّبُ النَّبيُّ صلَّى الله عليه وسلَّم أمَّتَه في الوضوء قبل النَّومِ والدُّعاء، فيقول صلَّى الله عليه وسلَّم للبَرَاءِ بنِ عازِبٍ: إذا أتيتَ مَضجعَك، أي: إذا أردتَ أن تذهَبَ إلى فِراشِ نومِك، فتوضَّأْ وُضوءَك للصَّلاةِ، أي: فتوضَّأْ قبل أن تذهَبَ إلى الفِراشِ وضوءًا كاملًا، كما لو كنتَ تتوضَّأُ للصَّلاةِ، ثمَّ اضطجِعْ على شِقِّك الأيمنِ؛ لأنَّه أدْعى إلى النَّشاط والاكتفاءِ بالقليل من النَّوم، وأعْونُ على الاستيقاظِ في آخِرِ اللَّيل، وأنفعُ للقلب، ثمَّ قُلِ: اللهمَّ أسلَمتُ وجهي إليك، أي: أسلمتُ رُوحي عند نومي، وأَودعتُها أمانةً لدَيك، وفوَّضتُ أمْري إليك، أي: توكَّلتُ في جميع أموري عليك، راجيًا أن تَكفيَني كلَّ شيء، وتَحميَني من كلِّ سوء، وألجَأتُ ظَهري إليك، أي: وتحصَّنتُ بجِوارك، ولجَأتُ إلى حِفظِك، فاحرُسْني بعينِك التي لا تنام، رغبةً ورهبةً إليك، أي: وإنَّما فعلتُ ذلك كلَّه رغبةً، أي: طمعًا في رحمتِك، ورهبةً، أي: خوفًا منك، لا ملجَأَ ولا منجَا منك إلَّا إليك، أي: فإنَّه لا مفرَّ منك إلَّا إليك، ولا ملاذَ من عقوبتك إلَّا بالالتِجاءِ إلى عفوِك ومغفرتِك يا أرحمَ الرَّاحِمينَ، آمنتُ بكِتابك الذي أنزَلتَ، وهو القرآنُ الكريم، ونبيِّك الذي أرسَلتَ، وهو محمَّدٌ صلَّى الله عليه وسلَّم، ثمَّ قال صلَّى الله عليه وسلَّم: فإنْ مُتَّ من ليلتِك فأنتَ على الفِطرةِ، أي: فإنْ متَّ في تلك اللَّيلةِ التي نِمْتَ فيها، فإنَّك تموتُ على دِينِ الإسلام، وسُنَّةِ خيرِ الأنام
также здесь в транскрипции указано «Аллахумма, аманту би-китаби-кя аллязи»а в арабском тексте нет «Аллахума»: آمَنْتُ بِكِتابِكَ الَّذِي أنْزَلْتَвозможно, это тоже небольшая опечаткаБаракаЛлахьу фикум!