—
Хадис: “Будь в этом мире (таким), будто ты чужеземец или путник”
___________________________________________
وعن ابن عمر رضي الله عنهما ، قَالَ :
أخذ رسول الله — صلى الله عليه وسلم — بِمَنْكِبَيَّ ، فقال : (( كُنْ في الدُّنْيَا كَأنَّكَ غَرِيبٌ ، أَو عَابِرُ سَبيلٍ )) . وَكَانَ ابن عُمَرَ رضي الله عنهما ، يقول : إِذَا أمْسَيتَ فَلاَ تَنْتَظِرِ الصَّبَاحَ ، وَإِذَا أَصْبَحْتَ فَلاَ تَنْتَظِرِ المَسَاءَ ، وَخُذْ مِنْ صِحَّتِكَ لِمَرَضِكَ ، وَمِنْ حَيَاتِكَ لِمَوْتِكَ . رواه البخاري .
«(Однажды) посланник Аллаха, да благословит его Аллах и приветствует, взял меня за плечи и сказал: “Будь в этом мире (таким), будто ты чужеземец или путник”».
(Передатчик этого хадиса сказал, что) Ибн ‘Умар, да будет доволен Аллах ими обоими, часто говорил:
«Если ты дожил до вечера, то не жди[1](, что доживёшь и) до утра, а если ты дожил до утра, то не жди(, что доживёшь и) до вечера, и бери у твоего здоровья (то, что пригодится) для твоей болезни, а у твоей жизни — (то, что пригодится) для твоей смерти».[2] Этот хадис передали Ахмад (2/24, 41), аль-Бухари (6416), ат-Тирмизи (2333), Ибн Хиббан (698), Абу Ну’айм в «Хильятуль-аулияъ» (3/301).
Хадис достоверный. См. «Сахих аль-Джами’ ас-сагъир» (4579), «ас-Сильсиля ас-сахиха» (1157).
Имам ан-Навави сказал:
— (Комментаторы) этого хадиса говорили, что его смысл состоит в следующем: не полагайся на мир этот, не считай его своей родиной, не говори себе, что ты останешься в нём надолго и что надо о нём заботиться, привязывайся к нему не больше, чем привязывается к (чужой земле) чужестранец, и не занимайся в нём тем, чем не занимается (на чужбине) чужестранец, желающий вернуться к себе домой, а помощь (оказывает) Аллах. См. «Рияду-с-салихин» 471.
[1] То есть: не надейся, что ты проживёшь ещё долго, и не откладывай благие дела на потом, так как человек может покинуть этот мир в любой момент.
[2] То есть: совершай благие дела, пока ты жив и здоров, и используй для этого все возможности с учётом неизбежности наступления такого момента, когда эти возможности будут исчерпаны.
—
شرح الحديث
التخريج : من أفراد البخاري على مسلم
المُؤمِنُ يجعَلُ الدُّنيا دارَ عَمَلٍ وعبادةٍ لِيَحصُدَ ثوابَ ذلك في الآخِرةِ؛ لأن الآخرةَ هي دارُ القَرارِ، وليْستِ الدُّنيا إلَّا دارًا فانيةً سَتَنْتهي إنْ عاجلًا أو آجلًا.
وفي هذا الحديثِ يَرْوي عبدُ اللهِ بنُ عُمرَ رضِيَ اللهُ عنهما أنَّ رَسولَ اللهِ صلَّى اللهُ عليه وسلَّم أَمسَكَ بمَنْكِبه -والمَنكِبُ: مَجمَعُ العَضُد والكتِفِ-؛ لِتَنْبيهِه إلى التَّوجُّهِ إليه، وليجعَلَه في اهتمامٍ لِما سيوصيه به، وقال صلَّى اللهُ عليه وسلَّم واعظًا له: «كُنْ في الدُّنيا كأنَّك غَريبٌ» قَدِم بَلدًا لا مَسْكنَ له فيه يُؤوِيه، ولا ساكِنَ يُسلِّيه، خالٍ عن الأهلِ والعيالِ والعَلائقِ، التي هي سَببُ الاشتغالِ عن الخالِقِ، «أو عابِرَ سَبيل» أي: أو كُنْ كالذي خرَج مُسافِرًا يَمُرُّ بالبِلادِ غيرَ مُتوقِّفٍ فيها إلَّا لِيَتزوَّدَ منها؛ فعابرُ السَّبيلِ أشدُّ زُهدًا في مُغرَياتِ طَريقِه مِن الغَريبِ؛ لأنَّ الغَريبَ قدْ يَسكُنُ في بِلادِ الغُربةِ ويُقيمُ فيها، بخِلافِ عابِرِ السَّبيلِ القاصِدِ للبَلَدِ، وبيْنَه وبيْنَ بلدِه مَسافاتٌ شاسِعةٌ، وهو في حالةِ تَخفُّفٍ دائمةٍ مِن الأثقالِ حتى لا تُعيقَه أو تُؤخِّرَه عن بُلوغِ مَقصدِه. وقيل: إنَّ «أو» للإضرابِ بمَعْنى «بلْ»، والمعنى: بلْ كُنْ كأنَّك عابرُ سَبيلٍ، وهو ارتِفاعٌ به إلى مَنزلةٍ أعْلَى في الزُّهدِ مِن مَنزلةِ الغَريبِ.
والمرادُ: أنَّ على المُؤمنِ أنْ يَستحضِرَ في قلبِه دائمًا حالةَ الغريبِ أو المُسافِرِ لحاجتِه وغايتِه في تَعامُلِه مع شَهواتِ الدُّنيا ومُتطلَّباتِها؛ ليَصِلَ بذلك إلى آخِرتِه -التي هي دارُ إقامتِه الدَّائمةِ- في أسْلَمِ حالٍ؛ فهو لا يَركَنُ إلى الدُّنيا، بلْ يُعلِّقُ قلْبَه بالدَّارِ الآخِرةِ، فإذا فاجَأَه الموتُ كان كمَنْ وصَلَ إلى غايتِه.
وقدْ تعَلَّم ابنُ عُمَرَ رَضِيَ اللهُ عنهما هذا الدَّرسَ ووَعاه جيِّدًا، فكان يقولُ لنَفسِه ولغيرِه: «إذا أَمسيتَ فلا تَنتظِرِ الصَّباحَ»؛ بألَّا تُؤخِّرَ عَمَلًا مِن الطَّاعاتِ إلى الصَّباحِ؛ فلعلَّك تكونُ مِن أهلِ القُبورِ، وإذا أصبَحْتَ فلا تُؤخِّرْ عَمَلَ الخيرِ إلى المساءِ؛ فقدْ يُعاجِلُك الموتُ، واغتنِمِ الأعمالَ الصَّالحةَ في الصِّحَّةِ قبْلَ أنْ يحُولَ بيْنك وبيْنها المرضُ، واغتنِمْ حَياتَك في الدُّنيا، فاجمَعْ فيها ما يَنفَعُك بعْدَ مَوتِك.
وفي الحَديثِ: أنَّ التَّفكيرَ في فَناءِ الدُّنيا وعَدمِ دَوامِها يُؤدِّي بالعبدِ إلى الاستقامةِ، والمواظَبةِ على صالحِ الأعمالِ.
وفيه: الحثُّ على التَّشبُّهِ بالغريبِ وعابرِ السَّبيل؛ فكِلاهما لا يَلتفِتُ إلى الدُّنيا.