Хадис:
«О Аллах, избавь меня от запрещённого Тобой посредством дозволенного Тобой …»
عن عليّ رضي اللّه عنه أن مُكاتباً جاءه فقال: إني عجزتُ عن كتابتي فأعنّي، قال: ألا أُعلّمك كلماتٍ علمنيهن رسولُ اللّه صلى اللّه عليه وسلم، لو كان عليك مثل جبل صِيْرٍ ديناً أدّاه عنك؟ قل: »اللَّهُمَّ اكْفِني بِحَلالِكَ عَنْ حَرَامِكَ، وَأغْنِني بِفَضْلِكَ عَمَّنْ سِواكَ» . قال الترمذي: حديث حسن .
Передают со слов ‘Али, да будет доволен им Аллах, что (как-то раз) к нему пришёл раб, заключивший со своим хозяином договор о самовыкупе, и сказал:
«Я не могу (выполнить условия) моего договора[1], помоги же мне!» (‘Али, да будет доволен им Аллах,) сказал: «Так не научить ли тебя словам, которым научил меня Посланник Аллаха, да благословит его Аллах и приветствует? (Они таковы, что) будь на тебе долг, подобный горе, Аллах (и тогда) отдаст его за тебя![2] Говори: “О Аллах, избавь меня от запрещённого Тобой посредством дозволенного Тобой и по милости Твоей избавь меня от необходимости в ком бы то ни было, кроме Тебя! /Аллахумма,-кфи-ни би-халялика ‘ан харамика ва агъни-ни би-фадлика ‘амман сивака!/”» Этот хадис передали Ахмад (1/153), аль-Хаким (1/721) и ат-Тирмизи (3563), который сказал: «Хороший хадис».
Хафиз Ибн Хаджар назвал хадис хорошим. См. «аль-Футухат ар-Раббанийа» (4/29).
Шейх аль-Албани назвал хадис хорошим. См. «Сахих аль-Джами’ ас-сагъир» (2625), «Сахих ат-Таргъиб ва-т-тархиб» (1820), «Мишкатуль-масабих» (2449), «ас-Сильсиля ас-сахиха» (266).
[1] То есть не могу вернуть долг.
[2] Имеется в виду, что благо этих слов столь велико, что Аллах непременно поможет произносящему их должнику выплатить долг.
Имам ан-Навави, да помилует его Аллах, привёл этот хадис в своей книге «аль-Азкар» в главе, которую назвал следующим образом: «Что желательно говорить, если у человек есть долг, который он не в состоянии оплатить».
شرح الحديث
كان صَحابَةُ النَّبيِّ صلَّى اللهُ علَيه وسلَّم، يأمُرون بالمعرُوفِ ويَنهَوْن عن المنكَرِ، ويُعلِّمون الجاهِلَ، ويُبلِّغون دِينَ اللهِ سبحانه وتعالى في مَشارِقِ الأرْضِ ومغارِبِها.
وفي هذا الحديثِ يُخبِرُ علِيُّ بنُ أبي طالِبٍ رَضِي اللهُ عَنه، «أنَّ مُكاتَبًا»، مِن المُكاتبَةِ، وهي أنْ يتَعاقَدَ العبْدُ مع سيِّدِه على قدْرٍ مِن المالِ إذا أدَّاه له أصبَح حُرًّا، «جاءَه»، أي: جاء هذا العبْدُ المُكاتَبُ إلى علِيِّ بنِ أبي طالِبٍ رَضِي اللهُ عَنه، «فقال» المُكاتَبُ لعلِيِّ بنِ أبي طالِبٍ رَضِي اللهُ عَنه: «إنِّي قد عَجَزْتُ عن كِتابَتي»، أي: لم أستطِعْ أداءَ مالِ الكِتابَةِ، فليس لي مالٌ، ولا عمَلٌ أكتسِبُ منه المالَ، «فأعِنِّي»؛ بمالٍ أو بدُعاءٍ أو شَفاعَةٍ، حتَّى أقضِيَ كِتابَتي، «قال»، أي: علِيُّ بنُ أبي طالِبٍ رَضِي اللهُ عَنه: «ألَا أُعلِّمُك»، أي: هل أُعلِّمُك، «كلِماتٍ» تَقولُهنَّ لِيَذهَبَ دَيْنُك، ويَقضِيَ اللهُ تعالى حاجَتَك، «علَّمَنيهنَّ»، أي: هذه الكلِماتُ علَّمَها لي، «رسولُ اللهِ صلَّى اللهُ علَيه وسلَّم، لو كان علَيك»، أي: مِن الدُّيونِ، «مثْلُ جبَلِ صِيرٍ»، وهو اسْمُ جبَلٍ ببِلادِ طَيِّئٍ، وقيل: باليمَنِ، «دَيْنًا»، أي: لو كان مِقدارُ أو حجْمُ الدَّيْنِ مثْلَ حجْمِ هذا الجبَلِ، «أدَّاه اللهُ عنكَ»، وأعانك علَيه ورَزَقك مالًا أو أحَدًا يَسُدُّ عنك مِن حيثُ لا تَدري، «قال»، أي: علِيُّ بنُ أبي طالِبٍ رَضِي اللهُ عَنه: «قُل»، أي: ادْعُ اللهَ تعالى بقوْلِك: «اللَّهمَّ اكْفِني بحَلالِك عن حَرامِك»، أي: قَنِّعْني بالحَلالِ وسُقْهُ إليَّ منه في كلِّ شيْءٍ؛ حتَّى لا أحتَاجَ معه إلى الحَرامِ، «وأغْنِني بفضْلِك عمَّن سِواكَ»، مِن الخلْقِ؛ حتَّى لا أحتاجَ إليهِم، ولا أُنزِلَ حاجَتي بأحَدٍ منهم.
وفي الحَديثِ: الحَثُّ على ردِّ السَّائلِ ردًّا حسَنًا إذا لم يكُنْ لك ما تُعطِيه.
وفيه: تنبِيهُ العالِمِ للمُتعَلِّمِ، وتَذكِيرُه بما يَحتاجُ إليه.
وفيه: أنَّ اللهَ سبحانه وتعالى كافٍ عبْدَه المؤمِنَ.