—
أطرافه 3610 ، 4351 ، 4667 ، 5058 ، 6163 ، 6931 ، 6933 ، 7432 ، 7562 تحفة 4132- 167/4
– (Однажды) ‘Али, да будет доволен им Аллах, отправил Пророку, да благословит его Аллах и приветствует, (из Йемена[1]) неочищенный от породы золотой самородок и он разделил его на четверых: аль-Акъра’ом ибн Хабисом аль-Ханзали аль-Муджаши’и, ‘Уйейной ибн Бадр аль-Фазари, Зайдом ат-Таи из бану Набхан и ‘Алькъамой ибн ‘Уляса аль-‘Амири из бану Киляб.[2] (Узнав об этом), курайшиты и ансары разгневались и сказали: «Он даёт (золото) предводителям жителей Неджда, а нас оставляет (ни с чем)?» (Пророк, да благословит его Аллах и приветствует,) сказал: «Поистине, я лишь склоняю их (сердца к Исламу)». Тогда (туда) пришёл один человек[3] с ввалившимися глазами, выступающими скулами, выпуклым лбом, густой бородой и бритой головой, и сказал: «Побойся Аллаха, о Мухаммад!» (Пророк, да благословит его Аллах и приветствует,) сказал: «Кто же тогда покорен Аллаху, если я ослушиваюсь Его? Аллах доверил мне (передать Его послание) обитателям земли, а вы не доверяете мне?» Один человек, и я думаю, что это был Халид ибн аль-Валид, попросил у (Посланника Аллаха, да благословит его Аллах и приветствует,) разрешения убить этого человека, но (Пророк, да благословит его Аллах и приветствует,) запретил ему это. А когда тот ушёл, (Посланник Аллаха, да благословит его Аллах и приветствует,) сказал: «Поистине, среди потомков (или: товарищей) этого (человека) появятся люди, которые станут читать Коран, но он не будет проходить дальше их глоток, и они выйдут из религии, подобно стреле, которая пронзает дичь. Они будут убивать приверженцев Ислама (мусульман) и оставлять (в живых) тех, кто поклоняется идолам. Поистине, если я застану их, то непременно буду убивать их так, как были убиты адиты![4]» См. также хадисы № 3610, 4351, 4667, 5058, 6163, 6931, 6933, 7432 и 7562. Этот хадис передал аль-Бухари (3344).
Также этот хадис передали Ахмад (3/4, 68), Муслим (1064), Абу Дауд (4764), ан-Насаи в «аль-Муджтаба» (5/87-88, 7/118) и «Сунан аль-Кубра» (2370, 3550, 11157), Ибн Хиббан (25), Абду-р-Раззакъ (18676), аль-Байхакъи в «Даляиль ан-нубувва» (6/426-427), Абу Ну’айм в «Хильятуль-аулияъ» (5/71). См. «Сахих ан-Насаи» (2577, 4112).
[1] О том, что ‘Али ибн Абу Талиб находился в Йемене сказано в версии этого хадиса, которую приводят ‘Абду-р-Раззакъ в «аль-Мусаннаф» (18676) и Ахмад (3/4).
[2] Эти четверо были главами своих племён. См. «Фатхуль-Бари» (13/118).
[3] Этого человека звали Зуль-Хувайсара. См. версию этого хадиса под № 3610.
[4] ‘Адиты – это народ Пророка Худа, который был уничтожен Аллахом. Об этом говорится в разных местах в Коране.
—
شرح الحديث
التخريج : أخرجه البخاري (3344) واللفظ له، ومسلم (1064).
بَعَث عَلِيٌّ رضِي اللهُ عنه مِن اليَمَن إلى النَّبيِّ صلَّى الله عليه وسلَّم بذُهَيبةٍ؛ وهي القِطْعة مِن الذَّهَب، فقَسَمها صلَّى الله عليه وسلَّم بين أربعةِ نَفَرٍ: الأَقْرَعِ بنِ حَابِسٍ الحَنْظليِّ ثمَّ الْمُجاشِعيِّ، وعُيَيْنَةَ بنِ بَدْرٍ الفَزَاريِّ، وزيدٍ الطَّائِيِّ ثمَّ أحدِ بَني نَبْهَانَ، وعَلْقمةَ بنِ عُلَاثةَ العامريِّ، ثمَّ أحدِ بني كِلاب، فغَضِبَت قُرَيْشٌ والأَنْصَارُ، وقالوا: يُعطي صلَّى الله عليه وسلَّم صَنادِيدَ أهلِ نَجْدٍ- أيْ: رُؤساءهم- ويَترُكنا، فبَيَّن لهم أنه إنَّما يتَألَّفُهم بالإعطاء؛ لِيَثْبتوا على الإسلامِ رَغْبةً فيما يَصِل إليهِم مِن المالِ، فَأَقْبل رجلٌ مِن بَني تَمِيمٍ يُقال له: ذو الْخُويصِرة واسمُه حُرْقُوص بن زُهَيْر «غائر» العينَين، أي: داخِلهما «مُشْرِف الوَجْنَتين»، أي: غَليظُهما، «نَاتِئُ الْجَبين» مُرتَفِعه، كَثُّ اللِّحية، كثير شَعرِها، مَحلوقٌ رأسُه، مُخالِفٌ لِمَا كانوا عليه مِن تربيةِ شَعْر الرَّأس وفَرْقِه، فقال: اتَّقِ اللهِ يا محمَّد! فقال صلَّى الله عليه وسلَّم: ((من يُطِعِ اللهَ إذا عصيتُ، أَيَأْمَنُني اللهُ على أهلِ الأرض فلا تأمنُوني؟!))، فسأله رجلٌ قَتْلَه- أحسَبُه خَالِدَ بنَ الوليد- فمنَعه صلَّى الله عليه وسلَّم مِن قَتْله تأليفًا لغيرِه، فلمَّا ولَّى الرَّجل قال صلَّى الله عليه وسلَّم: ((إنَّ مِن ضِئْضِئ))، أي: مِن نَسْلِ هذا أو في عَقِب هذا ((قومٌ يقرَؤون القرآنَ لا يُجاوز حناجرَهم))؛ جمْع حَنْجَرة؛ وهي مُنتَهى الحُلْقُوم، والحُلْقوم: مَجرى الطَّعام والشَّراب، أي: لا يُرْفَع في الأعمال الصَّالحة، ((يَمْرُقون))، أي: يَخرُجون مِن الدِّين، أي: الطَّاعة، ((مُرُوق السَّهم))، أي: خروجَه إذا نفَذَ من الجهة الأخرى، ((مِن الرَّمِيَّة)): الصِّيد المرِميِّ، وهذا نَعْت الخَوَارِج الذين لا يَدينون للأئمَّة ويَخرُجون عليهم، ((يَقْتُلون أهلَ الإِسلام ويَترُكون أهلَ الأَوْثان))، والوثَنُ: كلُّ ما له جُثَّة، متَّخَذٌ مِن نحو الحجارَة والخشَب؛ كصورة الآدمِيِّ، يُعبَد، ((لَئِن أنا أدرَكْتُهم لأقتُلنَّهم قَتْل عَاد))، أي: لأستَأصِلنَّهم بحيث لا أُبقِي منهم أحدًا كاستِئْصال عَاد.
[الأنصاري، زكريا]
(ابن كثير) هو محمد بن كثير العبدي. (سفيان) أي: الثوري. (عن أبيه) هو سعيد بن مسروق بن حبيب الثوري. (ابن أبي نُعْم) بضم النون هو عبد الرحمن أبو الحكم البجلي.
(بذهيبة) قال الخطابي: أنثها على نية القطعة من الذهب، وقد يؤنث الذهب في بعض اللغات (2). (الأقرع) إلا آخره بالرفع خبر مبتدإِ
محذوف، وبالجر بدل من (الأربعة)، أو بيان له. (الحنظلي) نسبة إلى حنظلة بن مالك بن زيد بن مناة. (ثم المجاشعي) نسبة إلى مجاشع بن آدم بن مالك بن حنظلة بن مالك بن زيد بن مناة. (عيينه بن بدر) نسبة إلى جدٍّ له، وإلا فهو حذيفة بن حصين بن حذيفة بن بدر وعيينة لقبه لقب به؛ لأنه طعن في عينيه. (الفزاري) نسبة إلى فزارة. (صناديد) أي: رؤساء جمع صنديد بكسر الصاد. (نجد) سمي به لعلوِّه عن انخفاض تهامة. (فأقبل رجل) هو ذو الخويصرة. (مشرف الوجنتين) أي: غليظهما، والوجنة مثلثة الواو، وقد تقلب الواو ألفًا. (ناتئ الجبين) أي: مرتفعة. (كث اللحية) أي: كثير شعرها. (محلوق) أي: محلوق الرأس كما في مسلم (1).
(أحسبه) أي: أظن أن هذا السائل هو خالد بن الوليد، وقيل: عمر بن الخطاب ولا تنافي لجواز أنهما سألا جميعًا. (فمنعه) أي: من القتل لئلا يتحدث الناس أن محمدًا يقتل أصحابه ولا ينافي ذلك قوله بعد: (لئن أدركتهم لأقتلنهم)؛ لأن المراد إدراك زمان خروجهم، إذا أكثروا واعترضوا الناس بالسيف. (من ضئضئ هذا) بكسر المعجمتين، وسكون الهمزة الأولى، أي: الأصل، والمراد: من نسله وعقبه، ويقال: فيه ضؤضؤ، ورواه بعضهم بمهملتين مكسورتين، والكل بمعنى قاله ابن الأثير (2). (لا يجاوز حناجرهم) جمع حنجرة: وهي رأس
(1) مسلم (1064) كتاب: الزكاة، باب: ذكر الخوارج وصفاتهم.
(2) «النهاية في غريب الحديث والأثر» 3/ 105.
الغلصمة (1) حيث تراه نائيًا من خارج الحلق، والمراد: لا يرفع في الأعمال الصالحة. (يمرقون من الدين) أي: الطاعة، وفي نسخة: «من الإسلام». (مروق السهم من الرمية) أي: يخرجون منه خروج السهم إذا نفد من الصيد من جهة أخرى ولم يتعلق بالسهم من دمه شيء، والرمية بوزن فعيلة بمعنى مفعولة. (قتل عاد) مرَّ معناه آنفًا، وفي نسخة: «قتل ثمود».
(1) الغلصمة: اللحم بين الرأس والعنق، أو العجرة على ملتقى اللهاة والمريء، أو رأس الحلقوم بشواربه. انظر: مادة (غلم) في «القاموس المحيط».