Хадис: «Не завидуйте друг другу, не взвинчивайте цену, откажитесь от взаимной ненависти …»
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« لا تَحاسَدُوا، وَلا تَناجَشُوا، وَلا تَباغَضُوا، وَ لاَ تَدَابَرُوا، وَ لا يَبْغِ بَعْضُكُمْ على بَعْضٍ وكُونُوا عِبادَ اللَّهِ إخْواناً، المُسلِمُ أخُو المُسْلِمِ لا يَظْلِمُهُ وَلا يَخْذُلُهُ وَلا يَحْقِرُهُ، التَّقْوَى هَاهُنا ـ ويشيرِ إلى صدره ثلاثَ مرات ـ بِحَسْبِ امْرىءٍ مِنَ الشَّرّ أنْ يَحْقِرَ أخاهُ المُسْلِمَ، كُلُّ المُسْلِمِ على المُسْلِمِ حَرَامٌ: دَمُهُ ومَالُهُ وَعِرْضُهُ ».
«Не завидуйте друг другу, не взвинчивайте цену, откажитесь от взаимной ненависти, не поворачивайтесь спиной[1] друг к другу, не перебивайте торговлю друг другу[2] и будьте братьями, о рабы Аллаха, ведь мусульманин мусульманину брат, и поэтому не должен никто из мусульман ни притеснять другого, ни относиться к нему с презрением, ни оставлять его без помощи, богобоязненность же скрыта здесь – и он трижды указал (рукой) себе на грудь, – а для того, чтобы причинить вред (себе же), достаточно человеку проявить презрение по отношению к своему брату в исламе[3]. И для каждого мусульманина неприкосновенными (должны быть) жизнь, имущество и честь другого мусульманина!» Этот хадис передали Муслим (2564), ат-Табарани в «аль-Му’джам аль-Аусат» (7/117). Хадис достоверный. См. «Сахих аль-Джами’ ас-сагъир» (7242).
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Имам ан-Навави сказал:
– «Наджш» (взвинчивание цены): взвинчивать цену значит поднимать её на товар, предлагаемый на рынке или в другом подобном месте, когда на самом деле человек не желает покупать его, стремясь только к тому, чтобы обмануть другого, что является запретным. «Тадабур» (отглагольное имя от «тадабара» – поворачиваться друг к другу спиной): имеется в виду такой случай, когда один человек отворачивается от другого и покидает его, в результате чего тот как бы остаётся у него за спиной. См. «аль-Азкар» имама ан-Навави (975).
[1] Здесь имеется в виду разрыв отношений между мусульманами, следствием которого становится отказ членов мусульманской общины от исполнения определённых обязанностей по отношению друг к другу.
[2] Имеются в виду те случаи, когда в переговоры покупателя и продавца без разрешения последнего вмешивается кто-то третий и начинает предлагать такой же товар дешевле или же нечто лучшее за ту же цену.
[3] Это значит, что проявление презрения по отношению к мусульманину обернётся злом для самого человека, поскольку в глазах Аллаха это является большим грехом.
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التخريج : أخرجه البخاري (6064) مختصراً، ومسلم (2564) واللفظ له
نَهى النَّبِيُّ صلَّى اللهُ عليه وسلَّم عَنْ مَساوئِ الأخلاقِ، ومِنها- كما جاءَ في هذا الحديثِ-: الحسدُ؛ فَأمَرَ بَألَّا يحسُدَ بعضُنا بعضًا، والحسدُ هو تَمَنِّي زوالِ نِعمةِ المحسودِ، وهو اعتراضٌ على اللهِ تعالى له حيثُ أنعَمَ على غيرِه معَ محاولَتِه نَقضَ فِعلِه وإزالَةِ فضلِه، ومنها: النَّجْشُ: فَأمرَ بِألَّا يَنْجُشَ بعضُنا على بعضٍ، وهو أنْ يَزيدَ في السِّلعةِ لا لِرغبةٍ فيها بَلْ؛ لِيخدعَ غيرَه ليشتريها بسعرٍ زائدٍ، سواءٌ كان بِمُواطأةِ البائعِ أم لا؛ لأنَّه غِشٌّ وخداعٌ. ومنها: التَّباغضُ: فأمرَ ألَّا يَبغَضَ بعضُنا بعضًا، أي: لا يَتَعاطى الرَّجَلُ أسبابَ البُغضِ؛ لأنَّه قهريٌّ كَالحُبِّ لا قدرةَ لِلإنسانِ على اكتسابِه ولا يملِكُ التَّصرُّفَ فيه، وهو النُّفرةُ عَنِ الشَّيءِ لِمعنًى فيه مستقبحٍ وتُرادِفُه الكراهةُ، ثُمَّ هو بَيْنَ اثْنينِ، إمَّا مِن جَانِبَيهِما أو مِن جانبِ أحدِهما، وعلى كلٍّ فهو لغيرِ اللهِ تعالى مَنهيٌّ عنه. ومنها: التَّدابرُ: فَأمرَ ألَّا يُدبِرَ بعضُنا عَنْ بعضٍ، أي: يُعرِضُ عمَّا يجبُ له مِن حقوقِ الإسلامِ كَالإعانةِ والنَّصرِ، وعدمِ الهجرانِ في الكلامِ أكثرَ مِن ثلاثةِ أيَّامٍ إلا لِعُذرٍ شَرعيٍّ. ومنها: البيعُ على بيعِ بعضٍ: فَأمرَ صلَّى اللهُ عليه وسلَّم بِألَّا يَبيعَ بعضُنا على بيعِ بعضٍ؛ فَلا يجوزُ لأحدٍ بِغيرِ إذنِ البائعِ أنْ يقولَ لِمُشتري سِلعةٍ في زَمنِ الخيارِ: افسخْ هذا البيعَ وأنا أَبيعُكَ مِثلَه بِأرخصَ مِن ثَمنِه أو أجودَ منه بِثمنِه؛ وذلك لِمَا فيه مِنَ الإيذاءِ الْمُوجبِ لِلتَّنافرِ وَالبُغضِ. ثُمَّ يأمرُ النَّبِيُّ صلَّى اللهُ عليه وسلَّم أنْ نكونَ عِبادَ اللهِ إخوانًا، ونأخذَ بِأسبابِ كلِّ ما يُوصلُنا لِمثلِ هذا مِنَ المودَّةِ وَالرِّفقِ وَالشَّفقةِ وَالملاطفةِ والتَّعاونِ في الخيرِ مع صفاءِ القلْبِ والنَّصيحةِ بِكلِّ حالٍ، ويقول: المسلمُ أخو المسلمِ، أي: الأُخوَّةُ الدِّينيَّةُ، وهي أعظمُ مِنَ الأخوَّةِ الحقيقيَّةِ؛ لأنَّ ثمرةَ هذه دنيويةٌ وثمرةَ تلك أُخرويَّةٌ، لا يَظلِمُه «ولا يَخذلُه»، أي: ولا يَتركُ إِعانتَه ونَصرَه، «ولا يَحقرُه»، أي: لا يَستصِغرُ شأنَه ويَضعُ مِن قَدْرِه؛ فَالاحتقارُ نَاشئٌ عَنِ الكبْرِ فهو بذلكَ يحتقرُ غَيرَه ويَراه بِعينِ النَّقصِ، ولا يَراه أهلًا لأنْ يَقومَ بِحقِّه.
«التَّقوى هَاهنا» التقوى هي اجتنابُ عذابِ اللهِ بِفعلِ المأمورِ وترْكِ المحظورِ، وَأشارَ صلَّى اللهُ عليه وسلَّم بِيدِه إلى صَدْرِه ثلاثَ مرَّاتٍ، أي: محلِّ مَادَّتِها مِنَ الخوفِ الحاصِلِ عليها القلبُ، الَّذي هو عِندَ الصَّدرِ.
«بِحسْبِ امْرئٍ»، أي: يَكفي الإنسانَ مِنَ الشَّرِّ؛ وذلكَ لِعِظَمِه في الشَّرِّ، كافٍ له عَنِ اكتسابٍ آخَرَ؛ أنْ يَحْقِرَ أخاهُ المسلمَ. كلُّ المسلمِ على المسلمِ حَرامٌ دمُه ومالُه وعِرضُه؛ فلا يَقتُلُ مسلمٌ مسلمًا أو يَسرِقُه أو يَزني بحَريمِه.
«إنَّ اللهَ لا ينظرُ إلى أجسادِكم، ولا إلى صُورِكم، ولكنْ ينظرُ إلى قُلوبِكم وأَشارَ بِأصابِعِه إلى صدْرِه»، فَاللهُ سبحانه وتعالى لا ينظرُ إلى أَجسامِ العباد؛ هلْ هي كبيرةٌ أو صغيرةٌ، أو صحيحةٌ أو سقيمةٌ، ولا ينظرُ إلى الصُّورِ؛ هل هي جميلةٌ أو ذميمةٌ؛ كلُّ هذا ليس بِشيءٍ عندَ اللهِ، وكذلكَ لا يَنظرُ إلى الأنسابِ؛ هلْ هي رفيعةٌ أو دنيئةٌ، ولا ينظرُ إلى الأموالِ ولا ينظرُ إلى شيءٍ مِن هذا أبدًا، لَيسَ بَيْنَ اللهِ وبَيْنَ خلْقِه صلةٌ إلا بِالتَّقْوى؛ فمَنْ كان للهِ أتقى كان مِنَ اللهِ أقربَ وكان عندَ اللهِ أكرمَ؛ إذَنْ فعلى المَرْءِ ألَّا يَفخرَ بِمالِه ولا بِجَمالِه ولا بِبدنِه ولا بِأولادِه ولا بِقُصوره ولا بِسيَّارتِه، ولا بِشيءٍ مِن هذه الدُّنْيا أبدًا، إنَّما إذا وفَّقه اللهُ لِلتَّقوى؛ فهذا مِن فضلِ اللهِ عليه؛ فَلْيحمدِ اللهَ عليه، وإنْ خُذِلَ فلا يَلومَنَّ إلَّا نفْسَه.
في الحديثِ: تحريمُ دمِ المسلمِ ومالِه، وعِرضِه، وتحريمُ خِذلانِه وخِيانتِه واحتقارِه، وأنْ يُحدِّثَه كذِبًا.
وفيه: أنَّ التَّقوى في القلبِ.