1520 – وعن عقبة بن عامرٍ — رضي الله عنه — قَالَ :
قُلْتُ : يَا رسولَ اللهِ مَا النَّجَاةُ ؟ قَالَ : (( أَمْسِكْ عَلَيْكَ لِسَانَكَ ، وَلْيَسَعْكَ بَيْتُكَ ، وابْكِ عَلَى خَطِيئَتِكَ )) . رواه الترمذي ، وقال: (( حديث حسن )) .
1520 – Сообщается, что ‘Укба бин ‘Амир, да будет доволен им Аллах, сказал: «(Однажды) я спросил: “О посланник Аллаха, что (может привести к) спасению?”, — (на что пророк, да благословит его Аллах и приветствует,) ответил: “Придерживай свой язык (, чтобы сказанное тобой не обернулось) против тебя[1], (считай) дом твой (достаточно) просторным для тебя[2] и плачь о грехах твоих». Этот хадис приводит ат-Тирмизи (2406), который сказал: «Хороший хадис».
Также этот хадис передали ‘Абдуллах ибн аль-Мубарак в «аз-Зухд» (134) и имам Ахмад (5/259).
Шейх аль-Албани назвал хадис достоверным. См. «Сахих ат-Тирмизи» (2406), «Сахих аль-Джами’ ас-сагъир» (1392), «Сахих ат-Таргъиб ва-т-тархиб» (2406, 2741, 2854, 3331), «ас-Сильсиля ас-сахиха» (890).
Также достоверность этого хадиса подтвердили имам Яхйа ибн Ма’ин, имам аль-Багъави, хафиз ‘Абдуль-Хаккъ аль-Ишбили, хафиз Ибн Хаджар, Шу’айб аль-Арнаут. См. «Тарих Багъдад» (8/265), «Шарху-с-Сунна» (7/339), «аль-Ахкаму-с-сугъра» (862), «Тахридж Мишкатуль-масабих» (4/382), «Тахридж аль-Муснад» (22235), «Тахридж Рияду-с-салихин» (1520).
[1] То есть: говори лишь то, что принесёт тебе пользу в обоих мирах и не сможет тебе повредить.
[2] Это значит: занимайся такими делами, которые потребуют твоего присутствия дома и будут препятствовать твоему общению с посторонними людьми. В данном случае имеются в виду различные виды поклонения Аллаху Всевышнему.
شرح الحديث
كان الصَّحابةُ رضِيَ اللهُ عَنهم يَحرِصون حِرصًا شَديدًا على النَّجاةِ في الدُّنيا والآخِرةِ؛ فكانوا يَسأَلون النَّبيَّ صلَّى اللهُ علَيه وسلَّم عن أسبابِ النَّجاةِ والفَلاحِ في الدُّنيا والآخِرَةِ، وكان النَّبيُّ صلَّى اللهُ علَيه وسلَّم يُرشِدُهم ويَدُلُّهم إلى طريقِ الخيرِ والنَّجاةِ.
وفي هذا الحديثِ يقولُ عُقبةُ بنُ عامرٍ رضِيَ اللهُ عَنه: «قلتُ: يا رسولَ اللهِ، ما النَّجاةُ؟»، أي: ما أسبابُ النَّجاةِ والفلاحِ في الدُّنيا والآخرةِ، وكيف أتَحصَّلُ عليهما وأَنْجو بنَفْسي؟ «قال»، أي: النَّبيُّ صلَّى اللهُ علَيه وسلَّم: «أمسِكْ عليك لِسانَك»، أي: كُفَّ لِسانَك واحْبِسْه واحْفَظْه عن قولِ كلِّ شرٍّ، ولا تَنطِقْ إلَّا بخيرٍ، وقد قال اللهُ تعالى: {مَا يَلْفِظُ مِنْ قَوْلٍ إِلَّا لَدَيْهِ رَقِيبٌ عَتِيدٌ} [ق: 18]؛ وذلك لِما للِّسانِ مِن خُطورةٍ، وفي صحيحِ البخاريِّ: «إنَّ العبدَ ليَتكلَّمُ بالكلمةِ مِن سَخطِ اللهِ لا يُلْقي لها بالًا يَهوي بِها في جهَنَّمَ»، وقد يَخرُجُ الإنسانُ مِن الدِّينِ بكَلمةٍ وهو لا يَدْري.
«وَلْيَسَعْك بيتُك»، أي: لِيَكُنْ في بيتِك سَعَتُك والْزَمْ بيتَك لِتَعبُدَ اللهَ في الخَلَواتِ، واشتَغِلْ بطاعةِ اللهِ عزَّ وجلَّ، واعتَزِلْ في بَيتِك عن الفِتَنِ، وقيل في مَعْناه: ارْضَ بما قسَم اللهُ لك مِن الزَّوجةِ والولَدِ والرِّزقِ والسَّكنِ، وغَيرِ ذلك مِن مَتاعِ الدُّنيا، وانظُرْ إلى مَن هو أعلى مِنك في أمرِ الدِّينِ، وإلى مَن هو أدنى مِنك في أمرِ الدُّنيا؛ لئلَّا تَزدَرِيَ نعمةَ اللهِ عليك، فهذا أسلَمُ لك.
«وابْكِ على خَطيئتِك»، أي: واندَمْ على ما ارتكَبتَ مِن ذنوبٍ، وابكِ بكاءً حقيقيًّا؛ تصديقًا لتوبتِك وإنابتِك، ثمَّ اشتَغِلْ بإصلاحِ نفسِك وتَهذيبِها.
وفي الحديثِ: بيانُ أسبابِ النَّجاةِ والفلاحِ في الدُّنيا والآخرةِ.